कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
हमारे काम में सौ सौ तरह फ़ुतूर आया
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वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
नाले में कभी असर न आया
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
बैठता है हमेशा रिंदों में
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
पयाम ले के जो पैग़ाम-बर रवाना हुआ