सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
हम आ गए हैं दश्त में घर-बार छोड़ कर
आँखों में जागते हुए ख़्वाबों का क्या करें
नींदें चली गईं हमें बेदार छोड़ कर
हम बे-ख़ुदी में कौन सी मंज़िल पे आ गए
ठहरा हुआ है वक़्त भी रफ़्तार छोड़ कर
साहिल किसे बताए यहाँ अपने दिल का दर्द
मौजें चली गईं उसे हर बार छोड़ कर
लाज़िम नहीं कि अक़्ल की हर बात ठीक हो
अब मान लो जो दिल कहे तकरार छोड़ कर
इस के सिवा अब और तो पहचान कुछ नहीं
जाऊँ कहाँ मैं अपना ये किरदार छोड़ कर
शायद इसी मलाल में वो धूप ढल गई
साया चला गया कहीं दीवार छोड़ कर
अब वादी-ए-ख़याल में तन्हा खड़ा हूँ मैं
जाने कहाँ गए मुझे अशआर छोड़ कर
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