कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
नींद आ जाती थी परियों की कहानी सुन कर
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मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
चाहतों के ख़्वाब की ताबीर थी बिल्कुल अलग
ख़्वाब जीने नहीं देंगे तुझे ख़्वाबों से निकल
ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए
एक जैसे लग रहे हैं अब सभी चेहरे मुझे
किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
समुंदरों को भी दरिया समझ रहे हैं हम
सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
लाख टकराते फिरें हम सर दर-ओ-दीवार से
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे