जले चराग़ बुझाने की ज़िद नहीं करते
जले चराग़ बुझाने की ज़िद नहीं करते
अब आ गए हो तो जाने की ज़िद नहीं करते
किसी की आँख में आँसू हमें पसंद नहीं
दिलों के ज़ख़्म दिखाने की ज़िद नहीं करते
तुम्हारे नाम का भी ज़िक्र हो न जाए कहीं
ग़ज़ल के शेर सुनाने की ज़िद नहीं करते
हमारे साए भी रस्ते में छोड़ जाते है
हमारा साथ निभाने की ज़िद नहीं करते
ख़ला में कोई इमारत कभी नहीं टिकती
वहाँ मकान बनाने की ज़िद नहीं करते
ये शहर-ए-संग है पत्थर के लोग रहते हैं
यहाँ पे फ़ूल खिलाने की ज़िद नहीं करते
ज़मीन जैसा कहीं चाँद भी न हो जाए
ज़मीं पे चाँद को लाने की ज़िद नहीं करते
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