या इलाही मुझ को ये क्या हो गया
दोस्ती का तेरी सौदा हो गया
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ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे
ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं
इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे
वफ़ा पर दग़ा सुल्ह में दुश्मनी है
दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन
क़िस्मत बुरे किसी के न इस तरह लाए दिन
तुम से अब क्या कहें वो चीज़ है दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़
सूरत-ए-हाल अब तो वो नक़्श-ए-ख़याली हो गया
इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया
राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं