ज़िंदगी अब तू मुझे और खिलौने ला दे
ऐसे ख़्वाबों से तो मैं दिल नहीं बहला सकता
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हम एक दिन निकल आए थे ख़्वाब से बाहर
देर हो गई
सब्ज़ रुतों में क़दीम घरों की ख़ुशबू
तुम्हारी याद निकलती नहीं मिरे दिल से
और ख़ुदा ख़ामोश था
ख़ुद-कुशी के पुल पर
ज़िंदगी से मुकालिमा
बस एक बार वो आया था सैर करने को
फिर वही शाम वही दर्द वही अपना जुनूँ
बेबसी गीत बुनती रहती है
बदलते वक़्त ने बदले मिज़ाज भी कैसे
हमारे शजरे बिखर गए हैं