हम सहल-तलब कौन से फ़रहाद थे लेकिन
अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है
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जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी
वासोख़्त
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
किस हर्फ़ पे तू ने गोश-ए-लब ऐ जान-ए-जहाँ ग़म्माज़ किया
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
''आप की याद आती रही रात भर''
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
हसीना-ए-ख़्याल से
यूँ बहार आई है इस बार कि जैसे क़ासिद
गो सब को बहम साग़र ओ बादा तो नहीं था
हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी