कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
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मंज़र
दुआ
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
शाएर लोग
यहाँ से शहर को देखो
ब-नोक-ए-शमशीर
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
कई बार इस का दामन भर दिया हुस्न-ए-दो-आलम से
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
चंद रोज़ और मिरी जान
मिरे दर्द को जो ज़बाँ मिले
करो कज जबीं पे सर-ए-कफ़न मिरे क़ातिलों को गुमाँ न हो