सितारे बोती रहीं नींद से तही आँखें
इधर ये हाल कि दामन भी तर नहीं होता
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हिसार-ए-ख़ौफ़-ओ-हिरास में है बुतान-ए-वहम-ओ-गुमाँ की बस्ती
जब भी तुम को सोचा है
अपनी ग़ज़ल को ख़ून का सैलाब ले गया
सुनहरी दरवाज़े के बाहर
इतनी ख़राब सूरत-ए-हालात भी नहीं
संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
गहरी नीली शाम का मंज़र लिखना है
रंग ख़ाके में नया भर दूँगा मैं
यूँही कर लेते हैं औक़ात बसर अपना क्या
एक नज़्म जंगलों के नाम
बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ