सुना है लोग वहाँ मुझ से ख़ार खाते हैं
फ़साना आम जहाँ मेरी बेबसी का है
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भटक न जाता अगर ज़ात के बयाबाँ में
तेरी मर्ज़ी न दे सबात मुझे
वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है
इतनी ख़राब सूरत-ए-हालात भी नहीं
जब कोई नौजवान मरता है
क़द्रों की हदें तोड़ नई तरह निकाल
जब भी तुम को सोचा है
ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या
संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
मशवरा देने की कोशिश तो करो
फिर पहाड़ों से उतर कर आएँगे
तू ख़ुदा है तो बजा मुझ को डराता क्यूँ है