संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
जिन की आँखें नूर से ख़ाली उन के दिल हैं आहन आहन
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
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जूँही बाम-ओ-दर जागे
एहसास
तोहमत-ए-सैर-ए-चमन हम पे लगी क्या न हुआ
सुना है लोग वहाँ मुझ से ख़ार खाते हैं
वही मैं हूँ वही ख़ाली मकाँ है
अपनी ग़ज़ल को ख़ून का सैलाब ले गया
जुनूँ-आसार मौसम का पता कोई नहीं देगा
नई बासी कोई ख़बर दे दे
मौत
वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है
दर्द की रात गुज़रती है मगर आहिस्ता
रंग ख़ाके में नया भर दूँगा मैं