कमरे में आ के बैठ गई धूप मेज़ पर
बच्चों ने खिलखिला के मुझे भी जगा दिया
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सफ़र
रातों के ख़ौफ़ दिन की उदासी ने क्या दिया
इन आँखों में बिन बोले भी मादर-ज़ाद तक़ाज़ा है
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
एक नज़्म
इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था
माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर
मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ
वही दो-चार चेहरे अजनबी से
ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो
जब जंगल बस्ती में आया