माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर
कुछ दिनों कुछ न माँग कर देखो
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मिलों के शहर में घटता हुआ दिन सोचता होगा
एक नज़्म
ये बस्ती कब दरिंदों से थी ख़ाली
सफ़र
सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है
आ के हो जा बे-लिबास
कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
रिश्ता खुजियाया हुआ कुत्ता है
न कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती
मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ