मैं एक संग हूँ मुझ में हैं सूरतें पिन्हाँ
मुझे तराशने आज़र तो सामने आए
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ये सच नहीं कि तमाज़त से डर गई है नदी
तमाम उम्र जो हँसता ही रह गया यारो
दोस्तों की अता है ख़ामोशी
अब क्या बताऊँ शहर ये कैसा लगा मुझे
फिर कभी ये ख़ता नहीं करना
इल्म की इब्तिदा है हंगामा
वह ज़ुल्म-ओ-सितम ढाए और मुझ से वफ़ा माँगे
ज़ालिम है वो ऐसा कि जफ़ा भी नहीं करता
न में यक़ीन में रख्खूँ न तो गुमान में रख
तुम को आना है तो आ जाओ इसी आलम में
उमीद की कोई चादर तो सामने आए