शम्अ-रू आशिक़ को अपने यूँ जलाना चाहिए
कुछ हँसाना चाहिए और कुछ रुलाना चाहिए
Wasi Shah
Parveen Shakir
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Gulzar
Rahat Indori
Jaun Eliya
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मेरी ये आरज़ू है वक़्त-ए-मर्ग
उस के कूचे में गया मैं सो फिर आया न गया
किया बदनाम इक आलम ने 'ग़मगीं' पाक-बाज़ी में
जाम ले कर मुझ से वो कहता है अपने मुँह को फेर
मुझे जो दोस्ती है उस को दुश्मनी मुझ से
मुझ से आज़ुर्दा जो उस गुल-रू को अब पाते हैं लोग
मुखड़ा वो बुत जिधर करेगा
मिरा उस के पस-ए-दीवार घर होता तो क्या होता
मैं ने हर-चंद कि उस कूचे में जाना छोड़ा
'ग़मगीं' जो एक आन पे तेरे अदा हुआ
जो न वहम-ओ-गुमान में आवे