मेरी ये आरज़ू है वक़्त-ए-मर्ग
उस की आवाज़ कान में आवे
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मुखड़ा वो बुत जिधर करेगा
किया बदनाम इक आलम ने 'ग़मगीं' पाक-बाज़ी में
उस के कूचे में गया मैं सो फिर आया न गया
न पूछ हिज्र में जो हाल अब हमारा है
मिरा उस के पस-ए-दीवार घर होता तो क्या होता
शम्अ-रू आशिक़ को अपने यूँ जलाना चाहिए
जाम ले कर मुझ से वो कहता है अपने मुँह को फेर
मैं ने हर-चंद कि उस कूचे में जाना छोड़ा
वो लुत्फ़ उठाएगा सफ़र का
'ग़मगीं' जो एक आन पे तेरे अदा हुआ
मुझ से आज़ुर्दा जो उस गुल-रू को अब पाते हैं लोग