आह! कल तक वो नवाज़िश! आज इतनी बे-रुख़ी
कुछ तो निस्बत चाहिए अंजाम को आग़ाज़ से
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मिरे पहलू से जो निकले वो मिरी जाँ हो कर
महव-ए-दीद-ए-चमन-ए-शौक़ है फिर दीदा-ए-शौक़
कट गई बे-मुद्दआ सारी की सारी ज़िंदगी
कभी सूरत जो मुझे आ के दिखा जाते हो
फिर वही हम हैं ख़याल-ए-रुख़-ए-ज़ेबा है वही
दर्द उल्फ़त का न हो तो ज़िंदगी का क्या मज़ा
दाना-ओ-दाम सँभाला मिरे सय्याद ने फिर
कहते हैं ईद है आज अपनी भी ईद होती
मक़्सूद-ए-उल्फ़त
मेरे पहलू में तुम आओ ये कहाँ मेरे नसीब
किस तरह वाक़िफ़ हों हाल-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ से