अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
बे-ताबियों से लुत्फ़ उठाने लगा हूँ मैं
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तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
मिरा वजूद हक़ीक़त मिरा अदम धोका
हज़ार ख़ाक के ज़र्रों में मिल गया हूँ मैं
हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
लुत्फ़-ए-जफ़ा इसी में है याद-ए-जफ़ा न आए फिर
देख कर शम्अ के आग़ोश में परवाने को
अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
उस बेवफ़ा की बज़्म से चश्म-ए-ख़याल में
तुम्हें भी मालूम हो हक़ीक़त कुछ अपनी रंगीं-अदाइयों की
उठने को तो उट्ठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन