हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत
मुश्किलें जितनी बढ़ीं उतनी ही आसाँ हो गईं
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तू न हो हम-नफ़स अगर जीने का लुत्फ़ ही नहीं
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
उठने को तो उट्ठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
वो निगाहें जो दिल-ए-महज़ूँ में पिन्हाँ हो गईं
महव-ए-कमाल-ए-आरज़ू मुझ को बना के भूल जा
ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का
तुम्हें भी मालूम हो हक़ीक़त कुछ अपनी रंगीं-अदाइयों की
ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं
उठने को तो उठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
वो पूछते हैं दिल-ए-मुब्तला का हाल और हम
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का