ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं
क्या दवा क्या दुआ करे कोई
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वो पूछते हैं दिल-ए-मुब्तला का हाल और हम
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
उठने को तो उट्ठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
मिरा वजूद हक़ीक़त मिरा अदम धोका
मैं क्या हूँ कौन हूँ ये भी ख़बर नहीं मुझ को
उस ने इस अंदाज़ से देखा मुझे
हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत
खोया हुआ सा रहता हूँ अक्सर मैं इश्क़ में