दिल-ए-सरशार मिरा चश्म-ए-सियह-मस्त तिरी
जज़्बा टकरा दे न पैमाने से पैमाने को
Rahat Indori
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हज़ार ख़ाक के ज़र्रों में मिल गया हूँ मैं
वो पूछते हैं दिल-ए-मुब्तला का हाल और हम
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
उठने को तो उट्ठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
तू न हो हम-नफ़स अगर जीने का लुत्फ़ ही नहीं
देख कर शम्अ के आग़ोश में परवाने को
महव-ए-कमाल-ए-आरज़ू मुझ को बना के भूल जा
उस बेवफ़ा की बज़्म से चश्म-ए-ख़याल में
बेदर्द मुझ से शरह-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी न पूछ