बेदर्द मुझ से शरह-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी न पूछ
काफ़ी है इस क़दर कि जिए जा रहा हूँ मैं
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निज़ाम-ए-तबीअत से घबरा गया दिल
हज़ार ख़ाक के ज़र्रों में मिल गया हूँ मैं
ज़बाँ पे हर्फ़-ए-शिकायत अरे मआज़-अल्लाह
ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
वो निगाहें जो दिल-ए-महज़ूँ में पिन्हाँ हो गईं
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
उठने को तो उठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
महव-ए-कमाल-ए-आरज़ू मुझ को बना के भूल जा
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का
लुत्फ़-ए-जफ़ा इसी में है याद-ए-जफ़ा न आए फिर