दुनिया में हैं काम बहुत
मुझ को इतना याद न आ
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कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
तिरी तलाश में जब हम कभी निकलते हैं
मन-ओ-तू का हिजाब उठने न दे ऐ जान-ए-यकताई
इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
नज़र से हद्द-ए-नज़र तक तमाम तारीकी
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे