नज़र से हद्द-ए-नज़र तक तमाम तारीकी
ये एहतिमाम है इक वा'दा-ए-सहर के लिए
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तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए
कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
अब कोई आरज़ू नहीं शौक़-ए-पयाम के सिवा
ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिलसिले
जब कभी हम ने किया इश्क़ पशेमान हुए
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
आज की रात
रौशनी सी कभी कभी दिल में
राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे