तमाम उम्र किया हम ने इंतिज़ार-ए-बहार
बहार आई तो शर्मिंदा हैं बहार से हम
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ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
ऐसी भी क्या जल्दी प्यारे जाने मिलें फिर या न मिलें हम
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए
अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिलसिले
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
तिरी तलाश में जब हम कभी निकलते हैं
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए