अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
सोचना और जानिब-ए-दर देखना
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कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
गर उस का सिलसिला भी उम्र-ए-जावेदाँ से मिले
रौशनी सी कभी कभी दिल में
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
दिल में इक शोर सा उठा था कभी
आज की रात
नर्गिस पे तो इल्ज़ाम लगा बे-बसरी का
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
फिर से आराइश-ए-हस्ती के जो सामाँ होंगे
मन-ओ-तू का हिजाब उठने न दे ऐ जान-ए-यकताई
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त