तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
कि रोज़ एक नए रास्ते पे चलते हैं
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अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
तमाम उम्र किया हम ने इंतिज़ार-ए-बहार
हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई
नर्गिस पे तो इल्ज़ाम लगा बे-बसरी का
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
ये दिलकशी कहाँ मिरी शाम-ओ-सहर में थी
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए