ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
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ऐसी भी क्या जल्दी प्यारे जाने मिलें फिर या न मिलें हम
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिलसिले
अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई
जब कभी हम ने किया इश्क़ पशेमान हुए
अब कोई आरज़ू नहीं शौक़-ए-पयाम के सिवा
राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे
दुनिया में हैं काम बहुत