ये दिलकशी कहाँ मिरी शाम-ओ-सहर में थी
दुनिया तिरी नज़र की बदौलत नज़र में है
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दुनिया में हैं काम बहुत
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
फिर से आराइश-ए-हस्ती के जो सामाँ होंगे
तमाम उम्र किया हम ने इंतिज़ार-ए-बहार
गर उस का सिलसिला भी उम्र-ए-जावेदाँ से मिले
इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया