तिरे जाते ही ये आलम है जैसे
तुझे देखे ज़माना हो गया है
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ऐसी भी क्या जल्दी प्यारे जाने मिलें फिर या न मिलें हम
नज़र से हद्द-ए-नज़र तक तमाम तारीकी
जब कभी हम ने किया इश्क़ पशेमान हुए
कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
अब कोई आरज़ू नहीं शौक़-ए-पयाम के सिवा
दुनिया में हैं काम बहुत
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
दिल से आती है बात लब पे 'हफ़ीज़'
गर उस का सिलसिला भी उम्र-ए-जावेदाँ से मिले