कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
वो मुझ को याद कभी इस क़दर नहीं आए
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ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
रौशनी सी कभी कभी दिल में
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
नर्गिस पे तो इल्ज़ाम लगा बे-बसरी का
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए
ये दिलकशी कहाँ मिरी शाम-ओ-सहर में थी
अब कोई आरज़ू नहीं शौक़-ए-पयाम के सिवा
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
दुनिया में हैं काम बहुत