दिल ने आँखों तक आने में इतना वक़्त लिया
दूर था कैसे ये बुत-ख़ाना अब मालूम हुआ
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आया था बज़्म-ए-शेर में अर्ज़-ए-हुनर को मैं
इश्क़ में छेड़ हुई दीदा-ए-तर से पहले
हम से ये बार-ए-लुत्फ़ उठाया न जाएगा
मौत के चेहरे पे है क्यूँ मुर्दनी छाई हुई
ज़िंदगी फ़िरदौस-ए-गुम-गश्ता को पा सकती नहीं
तराना-ए-पाकिस्तान
दिन की सूरत नज़र आते ही मिरी रात हुई
मजाज़ ऐन-ए-हक़ीक़त है बा-सफ़ा के लिए
उस शोख़ ने निगाह न की हम भी चुप रहे
दोस्ती का चलन रहा ही नहीं
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
बात भी जिस से अब नहीं मुमकिन