ख़ामोश हो गईं जो उमंगें शबाब की
फिर जुरअत-ए-गुनाह न की हम भी चुप रहे
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मदफ़न-ए-ग़रीबाँ है आओ फ़ातिहा पढ़ लें
कैसे बंद हुआ मय-ख़ाना अब मालूम हुआ
फिर दे के ख़ुशी हम उसे नाशाद करें क्यूँ
कृष्ण कन्हैया
देखा जो खा के तीर कमीं-गाह की तरफ़
हाँ कैफ़-ए-बे-ख़ुदी की वो साअत भी याद है
जो भी है सूरत-ए-हालात कहो चुप न रहो
आ ही गया वो मुझ को लहद में उतारने
वो क़ाफ़िला आराम-तलब हो भी तो क्या हो
उस शोख़ ने निगाह न की हम भी चुप रहे
तौबा तौबा शैख़ जी तौबा का फिर किस को ख़याल
मिरे डूब जाने का बाइस न पूछो