आ ही गया वो मुझ को लहद में उतारने
ग़फ़लत ज़रा न की मिरे ग़फ़लत-शिआर ने
Gulzar
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दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ
बात भी जिस से अब नहीं मुमकिन
दोस्तों को भी मिले दर्द की दौलत या रब
देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी 'हफ़ीज़'
है मुद्दआ-ए-इश्क़ ही दुनिया-ए-मुद्दआ
जिस ने इस दौर के इंसान किए हैं पैदा
इरादे बाँधता हूँ सोचता हूँ तोड़ देता हूँ
हैरान न हो देख मैं क्या देख रहा हूँ
उन को जिगर की जुस्तुजू उन की नज़र को क्या करूँ
पार उतरा हूँ किस क़रीने से
ये और दौर है अब और कुछ न फ़रमाए
हम ही में थी न कोई बात याद न तुम को आ सके