देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी 'हफ़ीज़'
फ़ुर्सत का वक़्त ही न दिया कारोबार ने
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आने वाले जाने वाले हर ज़माने के लिए
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश हों मैं
जिस ने इस दौर के इंसान किए हैं पैदा
दिल-ए-बे-मुद्दआ है और मैं हूँ
ये क्या मक़ाम है वो नज़ारे कहाँ गए
मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है
हाँ मैं तो लिए फिरता हूँ इक सजदा-ए-बेताब
दिन की सूरत नज़र आते ही मिरी रात हुई
दूर से आँखें दिखाती है नई दुनिया मुझे
हैरान न हो देख मैं क्या देख रहा हूँ
जो मिरे दिल में है कहने दीजिए
आया था बज़्म-ए-शेर में अर्ज़-ए-हुनर को मैं