पार उतरा हूँ किस क़रीने से
मौज उठा ले गई सफ़ीने से
आँसुओ क्या बनेगा पीने से
जी ही उकता गया है जीने से
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Gulzar
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जिस ने इस दौर के इंसान किए हैं पैदा
'इक़बाल' के मज़ार पर
ये मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं होती है
वो अब्र जो मय-ख़्वार की तुर्बत पे न बरसे
सामने दुख़्तर-ए-बरहमन है
फिर दे के ख़ुशी हम उसे नाशाद करें क्यूँ
सुनाता है क्या हैरत-अंगेज़ क़िस्से
आशिक़ सा बद-नसीब कोई दूसरा न हो
तौबा तौबा शैख़ जी तौबा का फिर किस को ख़याल
अहबाब का शिकवा क्या कीजिए ख़ुद ज़ाहिर ओ बातिन एक नहीं
मेरी शाएरी
यरान-ए-बे-बिसात कि हर बाज़ी-ए-हयात