लिबास-ए-काबा का हासिल किया शरफ़ उस ने
जो कू-ए-यार में काली कोई घटा आई
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दौलत-ए-हुस्न की भी है क्या लूट
बहर-ए-हस्ती सा कोई दरिया-ए-बे-पायाँ नहीं
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है
कोई इश्क़ में मुझ से अफ़्ज़ूँ न निकला
हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार लिए फिरती है
हुबाब-आसा में दम भरता हूँ तेरी आश्नाई का
मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
दिल बहुत तंग रहा करता है
आरिफ़ है वो जो हुस्न का जूया जहाँ में है