इरादा था कि अब के रंग-ए-दुनिया देखना है
ख़बर क्या थी कि अपना ही तमाशा देखना है
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एक बे-नाम सा डर सीने में आ बैठा है
हमें तो ख़्वाहिश-ए-दुनिया ने रुस्वा कर दिया है
दुश्मन को ज़द पर आ जाने दो दशना मिल जाएगा
छाजों बरसती बारिश के बाद
शब की शब महफ़िल में कोई ख़ुश-कलाम आया तो क्या
सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से
सफ़र दीवार-ए-गिर्या का
सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो
क्या शख़्स था उड़ाता रहा उम्र भर मुझे
उस का फ़िराक़ इतना बड़ा सानेहा न था
ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है
न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके