उस का फ़िराक़ इतना बड़ा सानेहा न था
लेकिन ये दुख पहाड़ बराबर लगा हमें
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गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है
इरादा था कि अब के रंग-ए-दुनिया देखना है
सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो
विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
मोहब्बतें तो फ़क़त इंतिहाएँ माँगती हैं
ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है
हमारी जेब में ख़्वाबों की रेज़गारी है
कल शब क़सम ख़ुदा की बहुत डर लगा हमें
आँखों से ख़्वाब दिल से तमन्ना तमाम-शुद
शब की शब महफ़िल में कोई ख़ुश-कलाम आया तो क्या
शाएरी पूरा मर्द और पूरी औरत माँगती है