सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो
सवाल ये है कि क्यूँ जिस्म ओ जाँ से बाहर है
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रिया-कारियों से मुसल्लह ये लश्कर मुझे मार देंगे
ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है
विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे भी आमादा हूँ लेकिन
आसार-ए-क़दीमा से निकला एक नविश्ता
हम परियों के चाहने वाले ख़्वाब में देखें परियाँ
सफ़र दीवार-ए-गिर्या का
न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके
गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है
उस का फ़िराक़ इतना बड़ा सानेहा न था
कल शब क़सम ख़ुदा की बहुत डर लगा हमें