शाम-ए-विदाअ थी मगर उस रंग-बाज़ ने
पाँव पे होंट रख दिए जाने नहीं दिया
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मोहब्बतें तो फ़क़त इंतिहाएँ माँगती हैं
क्या शख़्स था उड़ाता रहा उम्र भर मुझे
इरादा था कि अब के रंग-ए-दुनिया देखना है
धड़कती क़ुर्बतों के ख़्वाब से जागे तो जाना
तावान
एक बे-नाम सा डर सीने में आ बैठा है
मैं तलाश में किसी और की मुझे ढूँढता कोई और है
न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके
शाएरी पूरा मर्द और पूरी औरत माँगती है
दुश्मन को ज़द पर आ जाने दो दशना मिल जाएगा
सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से