जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके
अब 'हिलाल' घर चलो अब तो शाम हो गई
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जब वक़्त पड़ा था तो जो कुछ हम ने किया था
रास्ता देर तक सोचता रह गया
मिरी दास्ताँ भी अजीब है वो क़दम क़दम मिरे साथ था
उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
मुमकिन ही नहीं कि किनारा भी करेगा
न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें
रुकने के लिए दस्त-ए-सितम-गर भी नहीं था
हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
वक़्त ने रंग बहुत बदले क्या कुछ सैलाब नहीं आए
ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका