बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है
मिरे अलाव में अब राख के सिवा क्या है
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जो कुछ भी गुज़रता है मिरे दिल पे गुज़र जाए
बगूला
अब बताओ जाएगी ज़िंदगी कहाँ यारो
हरीफ़-ए-विसाल
आँख की क़िस्मत है अब बहता समुंदर देखना
इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे
'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
रात सुनसान दश्त ओ दर ख़ामोश
ईमाँ भी लाज रख न सका मेरे झूट की
हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात