Love Poetry (page 205)
न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल
ज़फ़र
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
ज़फ़र
मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम
ज़फ़र
मैं हूँ आसी कि पुर-ख़ता कुछ हूँ
ज़फ़र
क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं
ज़फ़र
क्यूँकर न ख़ाकसार रहें अहल-ए-कीं से दूर
ज़फ़र
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते
ज़फ़र
क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ
ज़फ़र
करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे
ज़फ़र
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
ज़फ़र
जिगर के टुकड़े हुए जल के दिल कबाब हुआ
ज़फ़र
जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो
ज़फ़र
जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं
ज़फ़र
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
ज़फ़र
इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है
ज़फ़र
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
ज़फ़र
होते होते चश्म से आज अश्क-बारी रह गई
ज़फ़र
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में
ज़फ़र
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
ज़फ़र
है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की
ज़फ़र
गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी
ज़फ़र
गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है
ज़फ़र
देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है
ज़फ़र
देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़
ज़फ़र
भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ
ज़फ़र
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
ज़फ़र
ज़रूरतों की हमाहमी में जो राह चलते भी टोकती है वो शाइ'री है
बद्र-ए-आलम ख़लिश
क़दमों से इतना दूर किनारा कभी न था
बद्र-ए-आलम ख़लिश
कहीं सुब्ह-ओ-शाम के दरमियाँ कहीं माह-ओ-साल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
गौरय्यों ने जश्न मनाया मेरे आँगन बारिश का
बद्र-ए-आलम ख़लिश