Love Poetry of Ibn-e-Mufti

Love Poetry of Ibn-e-Mufti
नामइब्न-ए-मुफ़्ती
अंग्रेज़ी नामIbn-e-Mufti

यूँ तो पत्थर बहुत से देखे हैं

ये कारोबार भी कब रास आया

कैसा जादू है समझ आता नहीं

अजब है खेल कैरम का

वो ख़्वाब जैसा था गोया सराब लगता था

शौक़ जब भी बंदगी का रहनुमा होता नहीं

फिर से वो लौट कर नहीं आया

कर बुरा तो भला नहीं होता

हम से मिलते थे सितारे आप के

ग़लत-फ़हमी की सरहद पार कर के

दिल वही अश्क-बार रहता है

बर्क़ ने जब भी आँख खोली है

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