मैं शीशा क्यूँ न बना आदमी हुआ क्यूँकर
मुझे तो उम्र लगी टूट फूट जाने तक
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उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
शाम से तन्हा खड़ा हूँ यास का पैकर हूँ मैं
सूरज नए बरस का मुझे जैसे डस गया
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा
मुझ से नफ़रत है अगर उस को तो इज़हार करे
दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
वो मिला मुझ को न जाने ख़ोल कैसा ओढ़ कर
हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ