दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
बादल तमाम शहर से बाहर बरस गया
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तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक
है जुस्तुजू अगर इस को इधर भी आएगा
अपनी मजबूरी बताता रहा रो कर मुझ को
सराए छोड़ के वो फिर कभी नहीं आया
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में
मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा
चाँद फिर तारों की उजली रेज़गारी दे गया
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा