फ़स्ल-ए-गुल में भी दिखाता है ख़िज़ाँ-दीदा-दरख़्त
टूट कर देने पे आए तो घटा जैसा भी है
Anwar Masood
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
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Rahat Indori
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Habib Jalib
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ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक
एक मुख़्तलिफ़ कहानी
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
हज़ार तल्ख़ हों यादें मगर वो जब भी मिले
कटी है उम्र किसी आबदोज़ कश्ती में
ये कौन मुझ को अधूरा बना के छोड़ गया
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा