ये कौन मुझ को अधूरा बना के छोड़ गया
पलट के मेरा मुसव्विर कभी नहीं आया
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तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक
न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए
मैं शीशा क्यूँ न बना आदमी हुआ क्यूँकर
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
ख़ुद को हुजूम-ए-दहर में खोना पड़ा मुझे
मिरे नुक़ूश तिरे ज़ेहन से मिटा देगा
कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा
न जाने कब वो पलट आएँ दर खुला रखना
ग़ैर हो कोई तो उस से खुल के बातें कीजिए
किसी के हक़ में सही फ़ैसला हुआ तो है