न हो कि क़ुर्ब ही फिर मर्ग-ए-रब्त बन जाए
वो अब मिले तो ज़रा उस से फ़ासला रखना
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बहती रही नदी मिरे घर के क़रीब से
जी में ठानी है कि जीना है बहर-हाल मुझे
तेरी आँखों की चमक बस और इक पल है अभी
नाम भी जिस का ज़बाँ पर था दुआओं की तरह
शाम से तन्हा खड़ा हूँ यास का पैकर हूँ मैं
इस क़दर भी तो न जज़्बात पे क़ाबू रक्खो
जिला-वतन हूँ मिरा घर पुकारता है मुझे
उस के चेहरे की चमक के सामने सादा लगा
हाथ हाथों में न दे बात ही करता जाए
दीवार ओ दर झुलसते रहे तेज़ धूप में
तिरा है काम कमाँ में उसे लगाने तक